
वोटरों को पटाने व उन्हें अपने पक्ष में करने के तौर तरीकों ने तो यहां की संस्कृति व प्रकृति को ही कर दिया प्रभावित।
चंपावत। पंचायती चुनाव की सर-गर्मियों को लेकर आए दिनों पहाड़ के गांव में जो रौनक दिखाई दे रही है उससे ऐसा नहीं लगता है कि यहां से कभी पलायन भी हुआ होगा। दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़, गुजरात आदि तमाम विभिन्न स्थानों से प्रवासी गांव में अपने नातेदार, रिश्तेदार, बिरादरी के लोगों के पक्ष में वोट देने के लिए पहुंचे थे उसने एक-एक गांवों की रौनक बढ़ा दी। कई जिला पंचायत एवं ब्लाक प्रमुख के दावेदाराे ने तो अपने खर्चे में तमाम प्रवासी लोगों को बुलाकर अपना पक्ष मजबूत किया। इस चुनाव की सबसे बड़ी विशेषताएं यह रही कि गांव से जुड़े मुद्दे शिक्षा, चिकित्सा, पेयजल नशे की बढ़ती हुई प्रवृति, रोजगार, पर्यावरण संरक्षण, स्वच्छता एवं अपने गांव को आदर्श रूप देने जैसे अहम मुद्दों पर चर्चा करने करने हेतु प्रत्याशियों एवं मतदाताओं को भी फुर्सत ही नहीं मिली। महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण मिलने से भले ही वे चुनाव मैदान में उतरी हैं, उनमें 90 फ़ीसदी महिलाओं को यह पता तक नहीं है कि वह जिस पद के लिए चुनाव लड़ रही है उसका काम क्या होता है? इसका उन्हें पता तक नहीं रहता है। दरअसल, रात दिन कम के बोझ से दबी इन “अबलाओं” को अपने पैरों में खड़ा करने की सोच ही पैदा नहीं की गई। जिससे ये बेचारी मात्र बीडीसी की संख्या भेल ही बढ़ा देती हैं लेकिन इनका सारा कार्य रिमोट कंट्रोल से ही चलता है। फलस्वरूप ग्राम प्रधान से लेकर जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर यदि महिला हो तो उसमें अधिकांश रिमोट से ही काम करती आ रही हैं। बगैर शिकार-बात-दारू के पंचायती चुनाव के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। वैसे राज्य बनने के बाद लकड़ी, शराब, चरस के तस्करों एवं विभिन्न विकास कार्यों सड़कों आदि के निर्माण में लगे लोगों द्वारा अफसरों से मिलकर इतनी अकूट संपत्ति पैदा की है कि उनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पैदा होने से अब समाज का वास्तव में भला चाहने वालों के लिए गांव की सरकार या विधानसभा में जाने तो दरवाजे बंद ही हो गए हैं।
ग्राम प्रधान पद के लिए लोगों ने जिस कदर धन, शराब, कबाब व दान दक्षिणा में खर्च किया, उसकी भरपाई कैसे होगी? यह कोई जटिल सवाल नहीं है। मॉडल जिले की बात करें तो यह भी इससे अछूता नहीं है।ग्राम पंचायत की संपत्तियों का कोई रजिस्टर न होने से एक ही योजना कई बार पैसा उगलने लगती है। यह सब आइडिया नए जनप्रतिनिधियों को ग्राम विकास या पंचायती राज अधिकारी से मिल जाती है कि किस प्रकार योजनाओं का धन ठिकाने लगाया जाता है। इन बेचारे जनप्रतिनिधियों के पास अपने गांव व जिले का कैसे नियोजन किया जाए? इसकी कोई सोच ही नहीं है।यह बात अलग है कि इनमें मोटी तगड़ी बजट की राशि कैसी और कहां-कहां खपाई जाए इसका भी आईडिया विभाग के लोगों से ही मिल जाता है। यही वजह है कि मॉडल जिले में विजनरी डीएम या सीडीओ न हो तो विभिन्न कार्यों का बजट तो कपूर की तरह यूं ही उड़ जाता। यही वजह है कि अब ग्रामीण राजनीति भी सेवा के लिए नहीं बल्कि “अभी नहीं तो, कभी नहीं” की सोच से आगे नहीं बढ़ पा रही है। कोई भी मोती रकम खर्च कर बना जन प्रतिनिधि इसे सुनहरे अवसरों को खोना नहीं चाहते हैं। आजकल चुनाव के दौरान मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए जो “ट्रेंड” अपनाया जा रहा है, यह यहां की प्रकृति एवं प्रवृत्ति के बिल्कुल खिलाफ है। उन महिलाओं से पूछो जिनके बेटे या पति शाम को फ़ुफ़्त की शराब पीकर मदहोश हालत में घर पहुंचकर वहां की शांति को भी लील रहे हैं।
