
अल्मोड़ा। पंचायती चुनाव की अधिसूचना हटते ही गांवों की गलियों में एक बार फिर चुनावी हलचल देखने को मिल रही है। लाउडस्पीकरों की आवाज़ें तेज़ हो चुकी हैं और गांव की सड़कों पर पुराने-नए पर्चे फिर लहराने लगे हैं। अल्मोड़ा जिले के कई ब्लॉकों में चुनावी रंग इस बार कुछ अलग ही नजर आ रहा है – यहां परिवारवाद ने लोकतंत्र की चौपाल पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया है।
परिवार की सत्ता बचाने की जंग”। महिला आरक्षित सीटों पर पतियों ने अपनी पत्नी को, बेटों ने अपनी मां को, और सास ने बहू को उम्मीदवार बना दिया है। नाम भले ही किसी महिला का हो, लेकिन प्रचार और निर्णय कहीं और से संचालित हो रहे हैं। कई जगह तो पूरा परिवार ही एक कुर्सी, एक वंश की तर्ज पर मैदान में उतर आया है।
दिलचस्प यह भी है कि कई ऐसे चेहरे जो हल्द्वानी, दिल्ली या देहरादून जैसे शहरों में स्थायी रूप से बस चुके हैं, अब चुनाव के मौके पर गांव की गलियों में फिर से दिखाई देने लगे हैं। पंचायत की कुर्सी के लिए उनमें ऐसा उत्साह है कि शहर में रहकर गांव की सत्ता की चाभी अपने हाथ में रखना चाहते हैं।
इस बार भी कई पुराने चेहरे या फिर उनके परिजन मैदान में हैं। “काम किया था, अब और करेंगे” जैसे पुराने नारों को फिर से दोहराया जा रहा है। पिछली बार हारे हुए कुछ प्रत्याशी अब “परिवार के नए चेहरे” के साथ घर-घर जाकर वोट मांग रहे हैं।
